सोमवार, 8 जुलाई 2024

नभ से भी दूर लगते हो

 

नभ से भी दूर लगते हो

         ह्रदय में हर पल तुम बसे हो फिर भी ,

           नयन को नभ से भी दूर लगते हो ।

 

तुम सा न अपना सृष्टि में कोई ,

निशि दिन दरस की नित कामना है ।

मीरा की अविचल लगन ह्रदय में ,

शबरी सी जगी दृढ़ भावना है ।

 

          मिलना कठिनतम , फिर भी आत्मा को ,

          तुम्हीं तिलक - चन्दन, सिंदूर लगते हो  |   

 

चाँदनी से नित संदेश भेजे ,

मेघों द्वारा सौ दिए निमन्त्रण ।

मलय खगों को भी दायित्व सौंपा ,

कब कौन जाने कर दे द्रवित मन ।             

 

          नित बुलाया , पर न तुम आये फिर भी  ,

         सदैव अपने , बेकसूर लगते हो ।

 

प्रात न खिलता , न हँसती कुमुदनी ,

नदी , वन , पथों पर सूनापन है ।

भ्रमर उदास, कोयल मौन बैठी ,

निष्प्राण हो गया वृन्दावन है ।

 

            जब से गए तुम घिरा घोर अँधेरा ,

           तुम ही मन के बृज का सूर लगते हो  |


आलोक सिन्हा


10 टिप्‍पणियां:

  1. श्वेता जी बहुत बहुत धन्यवाद आभार

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  2. जी नमस्ते,
    आपकी लिखी रचना मंगलवार ९ जुलाई २०२४ के लिए साझा की गयी है
    पांच लिंकों का आनंद पर...
    आप भी सादर आमंत्रित हैं।
    सादर
    धन्यवाद।

    जवाब देंहटाएं
  3. प्रेम और भक्ति भाव से युक्त सुंदर रचना !

    जवाब देंहटाएं
  4. अनीता जी बहुत बहुत धन्यवाद आभार

    जवाब देंहटाएं
  5. बहुत ही सुन्दर सार्थक और भावप्रवण रचना आदरणीय सादर

    जवाब देंहटाएं
  6. अभिलाषा जी बहुत बहुत धन्यवाद आभार

    जवाब देंहटाएं
  7. बहुत बहुत धन्यवाद आभार ज्योति जी

    जवाब देंहटाएं
  8. बहुत बहुत धन्यवाद आभार मीना जी

    जवाब देंहटाएं

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