मेघ घिर आये गगन में ।
लोचनों का नीर लेकर,
पीर की जागीर लेकर,
सुप्त सब सुधियाँ जगाने,
अन्तर के नन्दन वन में ।
मेघ घिर आये गगन में ।
झुक रहा बैरी अँधेरा ,
घुट रहा घर द्वार मेरा ,
कौन सा यह विष घुला है ,
आज की शीतल पवन में ।
मेघ घिर आये गगन में ।
तुम हमारे , हम तुम्हारे ,
पर नदी के दो किनारे ,
प्राण ! औ’ कितनी कमी है ,
साधना में , अश्रु कण में ।
मेघ घिर आये गगन में ।
आलोक सिन्हा
प्रेम और विरह की धूपछाँव से सजी सुंदर रचना
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत धन्यवाद आभार अनीता जी
हटाएंवाह
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत धन्यवाद आभार जोशी जी
जवाब देंहटाएंवाह, बहुत ही सुन्दर सुकोमल गीत आलोक जी। बहुत खूब
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत धन्यवाद आभार गिरिजा जी
जवाब देंहटाएंप्रकृति जबअपनी ही संवेदना से प्रतिबिंबित लगने लगने लगे .....
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत धन्यवाद आभार प्रतिभा जी
जवाब देंहटाएंप्रकृति को बाखूबी लिखा है ...
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत धन्यवाद आभार नासवा जी
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