अब देश का मौसम तुम्हें मैं क्या बताऊँ ,
जब हर
दिशा गहरे तिमिर से घिर रही है |
भोर तो आती यहाँ हर रोज लेकिन ,
फूल कोई भी तनिक हँसता नहीं है |
रुकते नहीं एक पल को अश्रु फिर भी ,
वेदना
कोई तनिक सुनता नहीं है |
अब
किसी की सिसकियाँ मैं कैसे दुलारूं ,
मलय तक सांसों की छुअन से डर रही है |
हो गई अध
नग्न बेबस द्रोपदी पर ,
क्रूर दु:शासन तनिक बदला नहीं है |
सब गदा, गांडीव
धारी मौन बैठे ,
रक्त
थोडा भी कहीं पिघला नहीं है |
अब न्याय की आवाज मैं कैसे उठाऊँ ,
जब पूर्ण नगरी चारणों से भर रही है |
अब न कोई बांटता पीड़ा किसी की ,
सिर्फ सब अपने लिए ही जी रहे हैं |
मृत हुए प्राचीन गुण आदर्श सारे ,
स्वार्थ का धीमा जहर सब पी रहे हैं |
उपकार की अब भावना कैसे जगाऊँ ,
सम्वेदना जब हर ह्रदय में मर रही है |
स्व रचित – आलोक सिन्हा