गीत
इतना तो मैं
दूर नहीं जो ,
शुभ संदेशों का भी स्वागत
,
अन्तर द्वार नहीं कर
पाए ||
माना बेरी के फल जैसा ,
शूलों में उलझा जीवन है |
जो न कभी विहंसे बसंत में
,
उस बबूल सा जर्जर तन है |
पर इतना कमजोर नहीं जो ,
मेरा ह्रदय वहन
खुशियों का ,
पलभर भार नहीं कर
पाये ||
दायित्वों की अद्रश्य
बेड़ियाँ ,
दोनों पावों को जकड़ें हैं
|
ममता मोह युगल हाथों की ,
हर पल ही उँगली पकड़े हैं |
पर इतना असमर्थ नहीं जो
,
अश्रु , हास भेजें
आमन्त्रण ,
मन स्वीकार नहीं कर पाये ||
नैतिक मूल्यों की रक्षा
हित ,
जीवन भर संघर्ष किया है |
कतिपय आदर्शों की खातिर ,
जाने कितना गरल पिया है |
सच ! यदि मन निश्चय
करले तो ,
कोई प्रश्न नहीं वह
जिसका -
उपसंहार नहीं कर पाये ||