अभी २ अगस्त २० को बड़े भाई की मृत्यु पर एक बहुत पुरानी रचना याद आ गई |
यात्रा --- घर से मरघट की
कल मैं सब
श्रृगार करूंगा , अभिनय सब साकार करूंगा ,
तुम भी आना उस नाटक में , जो घर से पित - कानन होगा |
जो घर से मरघट तक होगा |
खुली खुली पथराई आँखें ,
अपलक तम्हें खोजती होंगीं |
आहट लेने को पैरों की ,
मौन धडकनें जगती होंगी |
पीले मुरझाये अधरों पर , नाम तुम्हारा पावन होगा |
स्वागत को उत्सुक देहरी पर ,
घंटे शंख गूंजते होंगे |
वर्षा करने को , फूलों से -
सभी अंजली भरते होंगे |
धूम मचेगी किन्तु तुम्हारे बिना सभी कुछ उनमन होगा
|
ठीक बीच आंगन में मेरी ,
डोली सभी निरखते होंगे |
बहिनें चंवर डुलाती होंगी ,
भाई खड़े सिसकते होंगे |
माँ का
प्यार शीश घुन धुन कर , करता प्रति पल क्रन्दन होगा |
कोई कितना नेह जताये ,
मेरी वाणी नहीं खुलेगी |
लाख बिलखने , हठ करने पर ,
पल भर डोली नहीं रुकेगी |
अंतिम क्षण बस तुमको देखूं ,यह संकल्प अन्तर मन होगा |
जब डोली पथ पथ घूमेगी ,
सब नर नारी उमड़ पड़ेंगे |
कोई नमन करेगा झुक कर ,
अश्रु किसी के निकल पड़ेंगे | लेकिन सबके
ही अधरों पर , केवल मेरा वर्णन होगा |
चिता सजेगी सबसे पहले ,
कोमल कुंतल केश जलेंगे |
पल पल जो दर्शन को आकुल ,
फिर वो पागल नयन मिटेंगे |
सांस सांस सब धुआं बनेंगी , अंग अंग हर रज कण होगा |
प्रिय जन तो कर्तव्य निभाकर ,
अपने चले गेह जायेंगे |
सब नश्वर है समझाने को ,
कुछ अंगारे रह जायेगे |
और मुझे बांहों में घेरे , मरघट का सूनापन होगा |
तुम अनजाने , राह अजानी ,
धाम तुम्हारा अनजाना है |
कैसे निर्णय कर पाऊंगा ,
मुझे कहाँ , किस पथ जाना है |
देर न करना
बाट जोहता मेरा ह्रदय अकिंचन होगा |
अब तक छिपे रहे तुम मन में ,
निशि दिन खेले आँख मिचोनी |
चुप चुप दिया सहारा प्रति पल ,
शुभ हो या कोई अनहोनी |
पर अब तो
तन छूट रहा है , देना पावन दर्शन होगा |
केवल एक तुम्हें पाने को ,
सब साथी परिचित छूटेंगे |
प्रति पल जुड़ा रहा मन जिनसे ,
ममता के बन्धन टूटेंगे |
फिर भी दरस न मिला तुम्हारा , पावन नाम अपावन होगा |
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