गीत
कब तक आशा –दीप जलाऊँ ,
इस अल्लढ़ मन को समझाऊँ |
जनम जनम से मन की राधा ,
खोज रही अपना मन भावन |
तृष्णा नहीं मिटी दर्शन की ,
रीत गया यह सारा जीवन |
अब कब तक उस श्याम बरन को ,
नित श्वासों का अर्घ्य चढाऊं |
सोचा था मन के उपवन में ,
रंग बिरंगे फूल खिलेंगे |
जब जब चाँद हंसेगा नभ में ,
सारे सुख भू पर उतरेंगे |
अब कब तक कल्पना कुन्ज में ,
गाऊँ , चातक सा अकुलाऊँ |
जाने कब से पागल सुधियाँ ,
बैठीं पथ में पलक बिछाये |
कुछ अतृप्ति , कुछ पीर संजोकर ,
स्वागत में दृग दीप जलाये |
अब कब तक उस भोर किरन की ,
सतत प्रतीक्षा करता जाऊं |
स्वरचित – आलोक सिन्हा