गुरुवार, 28 मार्च 2024

सच मुँह से निकल गया

 


           गजल

 

  मैं बहारों के घर कल गया ,

आँधियों को पता चल गया ।                                                                                                                                                    


ये आख़री रात है कह कर ,

रोज अँधेरा मुझे छल गया । 


खुशी लाएगी कल कुछ सुबह ,

उम्मीद में हर दिन ढल गया ।


 खतावार हूँ मुआफ कर दो ,

सच यूं ही मुँह से निकल गया ।

 

काग बोला है मुंडेरी पर ,           

क्या उन्हें मेरा खत मिल गया ?


आलोक बच्चा है सरल सा ,

झूठे वादों से बहल गया ।

 

अलोक सिन्हा

 

 

शनिवार, 9 मार्च 2024

सपनों ने संन्यास लिया तो

                                  गीत

 सपनों ने संन्यास लिया तो पगली आँखों का क्या होगा |

          आँसू से भीगी अँखियाँ भी ,

          सपनों में मुस्काने लगती | 

          कितनी हों दर्दीली श्वासें ,

          प्रीति जगे तो गाने लगतीं |

 प्रीति हुई वैरागिन तो इन भोली श्वासों का क्या होगा |

          पीर न लेती जनम धरा पर ,

          तो साँसों के फूल न खिलते |

          यमुना जल पानी कहलाता ,

          यदि राधा के अश्रु न मिलते |

 झूठी हैं यदि अश्रु कथाएँ तो इतिहासों का क्या होगा |

          तिल तिल जलकर ही दीपक ने ,

          मंगलमय उजियारा पाया |

          जितना दुःख सह लेता है मन ,

          उतनी उजली होती काया |

पुन्य पाप से हार गये तो इन विश्वासों का क्या होगा |  

 

सोमवार, 4 मार्च 2024

मिले तो मगर अजनवी की तरह

 

                गीत 

           नयन में रूप छवि बन बसे हैं सदा ,

            वह मिले तो मगर अजनवी की तरह ।

    

दरस की कल्पना मधुर पुलकों भरी ,

मन सरस कर रही चन्दनी माधुरी ।

      

     श्वास में जो मदिर गंध से हैं बसे ,

     वह मिले तो मगर अजनवी की तरह ।

 

कुछ  सुधियाँ हैं मन जगमगाए हुए ,

प्रीत-पाँखुरी पथ में बिछाए हुए |

    

        फूल से जो अधर पर खिले हैं  सदा ,

       वह मिले तो मगर अजनवी की तरह ।

 

धडकनें श्वांस के तार पर गा रहीं ,

हर घड़ी प्यार की धुन दोहरा रहीं ।

    

       प्राण में गीत बन जो सतत बस गए ,

      वह मिले तो मगर अजनवी की तरह ।          


अलोक सिन्हा