गीत
कोई तो सच सच बतलाये ,
अवध पुरी में पग धरने को ,
कितना अभी और चलना है |
दोनों पांवों में छाले हैं ,
अधरों पर जकड़े ताले हैं |
दूर दूर तक कहीं जरा भी
,
नहीं दीखते उजियाले हैं
|
चारों ओर घिरी आंधी में
,
भूख प्यास से जर्जर तन को
,
अभी और क्या क्या सहना है |
ताल ताल जमघट बगुलों का ,
डाल डाल कागों का आसन |
कैसे कोई लाज बचाये
,
हर पथ पर कपियों का शासन |
भीड़ तन्त्र के इस नव युग में
,
प्रजातंत्र के घायल तन को
,
कब तक नित तिल तिल दहना है |
सच भयभीत मौन व्रत साधे ,
अल्प बुद्धि स्वच्छंद हो गईं |
ह्रदय ह्रदय में शूल बो दिये ,
करुणा जाने कहाँ खो गई |
ऋषि मुनियों की तपो भूमि पर
,
तम औ’
यह झंझा का मौसम
, .
कब तक अभी और रहना है |
आलोक सिन्हा
जी नमस्ते ,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार(१०-१० -२०२२ ) को 'निर्माण हो रहा है मुश्किल '(चर्चा अंक-४५७७) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
सादर
अनीता जी बहुत बहुत धन्यवाद आभार रचना को चर्चा में सम्मिलित करने के लिए।
हटाएंबहुत सुन्दर रचना
जवाब देंहटाएंसरिता जी बहुत बहुत धन्यवाद आभार
जवाब देंहटाएंसुन्दर रचना
जवाब देंहटाएंओंकार जी बहुत बहुत धन्यवाद आभार
जवाब देंहटाएंबादल मनमानी करते हैं ,
जवाब देंहटाएंतड़ित पूर्ण स्वच्छंद हो गईं | सत्य सृजन
बहुत बहुत धन्यवाद आभार अनीता जी
हटाएंसुंदर काव्य पंक्तियां
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत धन्यवाद आभार मनोज जी
जवाब देंहटाएं