बुधवार, 24 जुलाई 2024

गीत -- मैं तुम्हारे गाँव आ तो जाता मगर -

 

           गीत

मैं तुम्हारे गाँव आ तो जाता  मगर -

हर तरफ ही काली घटा घिर रही है |

    शोर है अब शीघ्र अदभुत भोर होगी ,

    तम ज़रा सा भी न धरती पर बचेगा |

    हर तरफ सुख की विमल गंगा बहेगी ,

    पर्व जैसा द्रश्य पग पग पर  दिखेगा |

मैं हर कथन को मान लेता सच मगर -

न तो भ्रमित  है चेतना न डर रही है | 

    सच जिसे सब देव-गुण कहते थे कभी -    

    झूठ के प्रश्रय में बेबस जी रहा है |

    आदमी सब भूल कर आदर्श अपने ,

    ईर्ष्या औ द्वेष का विष पी रहा है |

 मैं समय के संग बदल तो जाता मगर ,

पूर्वजों की सीख अड़चन कर रही है |

    कितने जनम बाद मानव तन मिला है ,

    क्या इसे मैं यूँ ही तार तार कर दूँ |

    आंसुओं से हर घड़ी जिसको संवारा , 

    ये तन का दुशाला दागदार कर  दूँ |  

मैं स्वार्थी जीवन बिता तो लेता मगर -

हर सांस में इंसानियत भर रही है |

आलोक सिन्हा

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सोमवार, 8 जुलाई 2024

नभ से भी दूर लगते हो

 

नभ से भी दूर लगते हो

         ह्रदय में हर पल तुम बसे हो फिर भी ,

           नयन को नभ से भी दूर लगते हो ।

 

तुम सा न अपना सृष्टि में कोई ,

निशि दिन दरस की नित कामना है ।

मीरा की अविचल लगन ह्रदय में ,

शबरी सी जगी दृढ़ भावना है ।

 

          मिलना कठिनतम , फिर भी आत्मा को ,

          तुम्हीं तिलक - चन्दन, सिंदूर लगते हो  |   

 

चाँदनी से नित संदेश भेजे ,

मेघों द्वारा सौ दिए निमन्त्रण ।

मलय खगों को भी दायित्व सौंपा ,

कब कौन जाने कर दे द्रवित मन ।             

 

          नित बुलाया , पर न तुम आये फिर भी  ,

         सदैव अपने , बेकसूर लगते हो ।

 

प्रात न खिलता , न हँसती कुमुदनी ,

नदी , वन , पथों पर सूनापन है ।

भ्रमर उदास, कोयल मौन बैठी ,

निष्प्राण हो गया वृन्दावन है ।

 

            जब से गए तुम घिरा घोर अँधेरा ,

           तुम ही मन के बृज का सूर लगते हो  |


आलोक सिन्हा